विकासशील से विकसित तक के सफर की संभावित समस्याएं व निदान पर एक नजर:-

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“स्वस्थ और विकसित भारत,
का सपना सच करना होगा।
आजादी को अक्षुण्ण बनाने,
मिलकर काम करना होगा।”
कोई भी इकाई चाहे वो लोग हों संस्था हो या फिर सम्पूर्ण देश, सबकी एक ही ख्वाहिश होती है अपने आपको उत्तरोत्तर विकसित करते रहना। हमारे देश भारत व यहां बसने वालों की भी यही इच्छा है।अपनी इन इच्छाओं की पूर्ति हेतु हमने कई सफल कदम उठाए। अनेक सफल तंत्र विकसित किए लेकिन फिर भी हमें कामयाबी नहीं मिल रही आखिर क्यों? क्योंकि, हमने आगे की ओर कदम तो बढ़ाये लेकिन सफलता के लिए बिछाए पाइपलाइन में फैले कचरे को साफ नहीं किया।ये कचरा किस प्रकार का है व इसे कैसे साफ करें? आइये इसपर एक नजर डालते हैं।
विश्व की सबसे बड़ी लोकतंत्र का तमगा प्राप्त हमारे देश में कार्यप्रणाली तो विकसित की गई लेकिन वो उच्च गुणवत्ता के मानकों पर खरी नहीं उतरती है। हमारे द्वारा विकसित कार्यप्रणाली में अच्छे कामगार तो हैं, लेकिन उनके साथ-साथ कामचोर भी भरे हुए हैं।यहां हर अच्छे कार्य करने वाले लोगों को सीमाओं में बांधने वालों की भी कमी नहीं है।देश के नागरिकों की जहाँ तक बात की जाए तो अधिकांश लोगों को उनके मूल अधिकार की लड़ाई तो बखुबी लड़नी आती है। जिरह करने में वो सभी देश के निवासियों को पीछे करने की ताकत रखते हैं। लेकिन, जब बात कर्तव्य निर्वहन की आती है, तो अधिकांश सीमित सोच वाले स्वप्नदर्शी व अतिउपभोक्तावादी ये लोग हर मोड़ पर कन्नी काटते नजर आ जायेंगे। देश के भविष्य को लेकर तो कोई विस्तृत सोच ही नहीं कायम कर पा रहा है।अधिकांश तो सिर्फ अपने भूत,वर्तमान व भविष्य को लेकर ही चिंतित रहते हैं।
देश के तमाम क्षेत्रों में व्याप्त कुछ समस्याओं ने ही देश की कार्यप्रणाली को सीमित करने का कार्य किया।खैर इस कार्यप्रणाली का सीमित होना भी लाजिमी है, क्योंकि देश के बड़े हिस्से में नकारात्मक सोच व वातावरण लम्बे अर्से से विकसित होती चली आ रही है।अनेक आयामों में अगर देखा जाये तो इस सोच के विकसित होने के कई कारक हैं यथा “मैं” की भावना व अपराध तथा भ्रष्टाचार को जन्म देने वाली भावनायें इत्यादि।सुरसा की भांति मुंह फैलाये इन समस्याओं से देश का एक बड़ा हिस्सा प्रभावित है। इनसे निपटने में हमारे देश की राजनीतिक-प्रशासनिक-न्यायिक प्रणाली भी आंशिक तौर पर सक्षम है। देश के लगभग हरेक तन्त्र में व्याप्त हरेक प्रकार के गोचर-अगोचर लोभ, मोह या हिंसा-प्रतिहिन्सा की भावना जैसे कभी ना समाप्त प्रतीत होने वाले वायरस से ग्रसित लोग व उनके द्वारा निर्मित वातावरण भी काफी हद तक इस बात के लिए दोषी है।
उपरोक्त लिखित व इन जैसी हज़ारों-लाखों की तादाद में व्याप्त समस्याओं का “व्यवहारिक समाधान” संभव हो सकता है बशर्ते जब हम अपने देश में एक बेहतर उच्चगुणवत्ता युक्त ,सुशिक्षित एवम् स्वस्थ सकारात्म्क मानवतावादी स्वहित को त्यागती तपस्यावादी कार्यप्रणाली का विकास करें।फिलहाल तो ऐसी कार्यप्रणाली बहुत दूर की कौड़ी नजर आती प्रतीत हो रही है।
निष्कर्षत: अगर इस देश को विकसित देशों की श्रेणी में लाना है तो इस देश में बचे हुए कुछ गिने-चुने शुद्ध अंत:करण का पालन करने वाले लोग जो लगभग हर क्षेत्र में कार्यरत हैं, उनको बिना किसी शर्त कदम से कदम मिलाकर कार्य करना होगा।इन सभी लोगों को एक उन्नत किस्म की प्रगतिशील भविष्यवादी सोच को कायम करते हुए जमीनी स्तर पर बिना किसी दिखावे व क्रेडिट के कार्य संपादन करना होगा।

(ये लेखक के अपने निजी विचार हैं)

लेखक :- प्रभाकर कुमार (स्वंतत्र पत्रकार)

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